...

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यह जीवन नौका।
जब आह रूह से उठती है
भस्म लोहा हो जाता है
लाठी की उस रूहानी चोट में
आवाज कहाँ कोई होती है
कुछ सोच समझ जब तक पाते
वजूद कण कण बिंध जाता है।।
यह फितरत ईक नादानी सी
जो खुद को खुदा समझता है
ईक नेमत सब जो मिला झोली में
रख ओज बस बात और बोली में
वह सब सिमट तब आगोश में है
हसरतें जितनी भी रिंद सजाता है।।
चल आ मिल गले उन रस्मों से
जिससे नौका यह सज जाता है
कैसे उस पार उतर जाएगा
भूलकर उसे जिसने नदी में उतारा
हर लहर गर्त तक ले जाएगी
जिन लहरों पर बिंद ईतराता है।।
सब जान लिया,सब मान लिया
नियति के ताल को ताङ कहाँ पाता
मंद,कुंद गति जो होती है संग
हर सुर हर लय को कर जाती भंग
इन वेदनाओं से जहाँ दूर मति
नर्क धरा पर स्वर्ग छिंद छिंद छिप जाता है।।
✍️राजीव जिया कुमार,
सासाराम, रोहतास, बिहार।
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© rajiv kumar