पन्नों की दुनिया में ...
यही पैरहन... यही बिछावन
प्रीत यही.... और एक लेखक का यही है वैरागपन!
पन्नों के बीच बसी यह दुनिया
जैसे नीले रंग के आसमान में
उजली सी छितरी रहतीं नवरत रेखाएं...
चंचल उर पर बैठे रहते हैं आशाओं के जुगनूँ
पन्नों के बीच उलझता...
और सुलझता...सा रहता है मन!
पन्नों में बिखरे हैं सतरंगी स्वप्न बीज़
पन्नों में उगते हैं,
उम्मीदों के वृक्ष... पहाड़... रवि...
शशधर...
इन्हीं पन्नों में निर्झर झरती रहतीं...
प्रीत की पावन नव - पुरातन...सी
परिभाषाएं...
फिर भी पन्नों के ही हाशिए पर
बैठा रहता है
एक लेखक का स्नेहिल सा मन!!
पन्नों के माथे पर है रखा लेखनी का चुंबन...
गंधहीन इन पन्नों पर पुष्प
खुशबुएं बिखराते हैं...
जूही... चंपा... चमेली...पारिजात...
और मोगरा...
सुनो प्रिय, सब... ही तो यहाँ... उपज आते हैं...
पन्नों की दुनिया में रिमझिम सावन
बरसता है...
तपते हैं चैत... बैसाख... जेठ...
और ठिठुरते कार्तिक.. पूस.. अगहन...
बिखरा रहता है नन्हीं दूब पर
तुहिन का वो नन्हा सा कण...
पन्नों की भी मर्यादा है परन्तु... सिर्फ़
असिमित लेखन...
पन्नों के बीच की इस दुनिया में
नहीं बांधे जाते कभी
सीमाओं के बंध...!!
पन्नों के बीच
हम तुम... आदर्श बोते हैं...
इच्छाओं को संजोते हैं...
यहाँ गलियाँ हैं... चौबारे हैं,
कुछ दर्द भी हैं तो कुछ खुशियों के
हाट और द्वारे हैं...
अक़्सर खो देती हूँ मैं तुम को यहीं कहीं..
अक्सर...मिल भी जाते हो
यहीं... इसी दुनिया में तुम!!
"यही पैरहन... यही बिछावन
प्रीत यही.... और एक लेखक का यही है वैरागपन!"
प्रीत यही.... और एक लेखक का यही है वैरागपन!
पन्नों के बीच बसी यह दुनिया
जैसे नीले रंग के आसमान में
उजली सी छितरी रहतीं नवरत रेखाएं...
चंचल उर पर बैठे रहते हैं आशाओं के जुगनूँ
पन्नों के बीच उलझता...
और सुलझता...सा रहता है मन!
पन्नों में बिखरे हैं सतरंगी स्वप्न बीज़
पन्नों में उगते हैं,
उम्मीदों के वृक्ष... पहाड़... रवि...
शशधर...
इन्हीं पन्नों में निर्झर झरती रहतीं...
प्रीत की पावन नव - पुरातन...सी
परिभाषाएं...
फिर भी पन्नों के ही हाशिए पर
बैठा रहता है
एक लेखक का स्नेहिल सा मन!!
पन्नों के माथे पर है रखा लेखनी का चुंबन...
गंधहीन इन पन्नों पर पुष्प
खुशबुएं बिखराते हैं...
जूही... चंपा... चमेली...पारिजात...
और मोगरा...
सुनो प्रिय, सब... ही तो यहाँ... उपज आते हैं...
पन्नों की दुनिया में रिमझिम सावन
बरसता है...
तपते हैं चैत... बैसाख... जेठ...
और ठिठुरते कार्तिक.. पूस.. अगहन...
बिखरा रहता है नन्हीं दूब पर
तुहिन का वो नन्हा सा कण...
पन्नों की भी मर्यादा है परन्तु... सिर्फ़
असिमित लेखन...
पन्नों के बीच की इस दुनिया में
नहीं बांधे जाते कभी
सीमाओं के बंध...!!
पन्नों के बीच
हम तुम... आदर्श बोते हैं...
इच्छाओं को संजोते हैं...
यहाँ गलियाँ हैं... चौबारे हैं,
कुछ दर्द भी हैं तो कुछ खुशियों के
हाट और द्वारे हैं...
अक़्सर खो देती हूँ मैं तुम को यहीं कहीं..
अक्सर...मिल भी जाते हो
यहीं... इसी दुनिया में तुम!!
"यही पैरहन... यही बिछावन
प्रीत यही.... और एक लेखक का यही है वैरागपन!"