...

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जाना पहचाना सा वो चेहरा
जाना पहचाना सा वो चेहरा उल्फ़त का
अब ना जाने क्यों अजनबी हो गया है।

जिसके साथ मिलती थी खुशियाँ कभी
वो शख़्स अब ना जाने कहाँ ख़ो गया है।

मेल मुलाक़ातें, वादें , सपनें सब ख़त्म हुए
अब तो मानो जैसे अपना नसीब सो गया है।

अब तन्हाईयाँ ही भाने लगीं है दिल को मेरे
अकेलेपन से दिलकश हर मंज़र हो गया है।

अब उम्मीदों के ख़्वाब सजाने से डरने लगा हूँ
खुशियों भरा जीवन बिल्कुल बंजर हो गया है।

अब उस से क्या शिक़वा शिकायत करें "गौरव"
कि यूँ करके मुझे मरहूम वो शख़्स क्यों गया है।

© Gaurav J "वैरागी"

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