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अनभिज्ञ
तुम मुझ से अनभिज्ञ हो, नाम क्यों मेरा अनावश्यक लेते हो? पर्वत शिखरों से गिरता- झरता हूँ, अविरत स्रोत हूँ।
कला, कौशल, मन, संस्कार, रुचि, सभ्यता, आचार विचार सब मिल, सशक्त बन, बौद्धिक- विकास कर, संस्कृति बनती है।
तेरी यह संस्कृति कदम उठाती जाती है। जन जीवन में मिल चिरजीवी बनती है। जिस जाति की संस्कृति जितनी कमनीय होती है, वह उतन ही, जीवंत हो, स्तुत्य कार्य करती है।
सत्प्रेरणा जहाँ होती वहाँ मैं। कलह मिटाकर, कल्याण मनाने की, शहनाई जहाँ बजती है, स्पंदित कमनीय भाव होती वहाँ मैं। नर्तकी होती जहाँ, होती वहाँ मैं
इस देश की संस्कृति बहुत ही विवेकशील है। इस देश की संस्कृति ने विभिन्न प्रतिभावान दिये हैं। इस देश की संस्कृति ने गौतम तथा गांधी को दिया है।। इस देश की संस्कृति ने सुभाष तथा जवाहर को दिया है।
चरित्र गठन जुड़ा है साथ मेरे। नीति मेरी अन्यों का अनरना नहीं। अन्यों का आदरण ही मेरा धर्म है। आदमियत निभाना ही मेरा सद्धर्म है।
जान लेता जो मेरा मूल तथा रूप, अपने को शिखरों जैसे बनाता वह। अनभिज्ञ जो रहता संस्कृति से, वह, झोंकते फिरता अन्य की आँखों में धूल।।
किसने कत्ल किया ? जवाब संस्कृति !! किसने दल बदला ? जवाब संस्कृति !! किसने घर जला दिया ? जवाब संस्कृति !! किसने हडप लिया ? जवाब संस्कृति !!
हे अनभिज्ञ ! मुझे क्यों बदनाम करते हो ? कलंक लगाना, मेरा काम नहीं, कलंक धो डालना ही, मेरा असली काम समझो। संस्कृति का कलंक जाति का कलंक समझो।
आनाकानी करते, कदम पर कदम रखनेवालों की चर्चा में, दूसरों की आँखों में धूल झोंकने वालों की ताईद में,
न लेना नाम मेरा। आज दुर्भाग्य मेरा। ।
संस्कृति तेरा अनमोल धन है। अनभिज्ञ रहना उससे दोष तेरा है। परिहास केलिए नाम उसका रटोगे, तो, रार जरूर उससे तुम मोल लोगे। ।
अपने मतलबी बातों में। घी के दिये जला लेने में. मेरा नाम न लो। पानी मुझ पर मत फेरो।

© Kushi2212