...

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नियति....
कुछ यूँ हो चली है ज़िन्दगी मानो, कोई सुलगता सा सफ़र हो जैसे।
हर राह, हर मोड़ पर दूर तलक, चला आ रहा धुँआ सा नज़र हो जैसे।।

मालूम न था दिन कभी मुसलसल, यूँ ज़िन्दगी में दर्द लेकर आएंगे।
दिन अजनबी, रात भी अजनबी, रिश्तों की न अब कोई क़दर हो जैसे।।

मग़र थम जाएँ शिथिल हो कर, ये तो अपने लहू में बहते संस्कार नहीं।
और घिर जाएँ मानसिक तनाव में, ये मन के साहस का सिफ़र हो जैसे।।

सुनो... नादाँ ही तो हैं वो जो कहते, मयस्सर क़ायनात नहीं किसी को।
लड़ जाओ लकीरों की "नियति" से, मेहनत का रंग ही ज़फ़र हो जैसे।।
© shaifali....✒️