सुनो...अच्छा लगता है न...?
कभी कभी छोड़ कर मष्तिष्क की
सब शिराओं का साथ
मैं अपलक निहारती हूँ प्रकृति की निर्-भेद
निश्छलता को...
बात करती हूँ उससे... स्वयं से...
जैसे नन्हा शिशु... बात करता है...
खाली दीवारों से...
रोशनी के पीले बल्ब...
और पंखे की झूलती पंखुड़ियों से...
सुनो...
अच्छा लगता है न...?
खिडकी से आते हुए...
सब शिराओं का साथ
मैं अपलक निहारती हूँ प्रकृति की निर्-भेद
निश्छलता को...
बात करती हूँ उससे... स्वयं से...
जैसे नन्हा शिशु... बात करता है...
खाली दीवारों से...
रोशनी के पीले बल्ब...
और पंखे की झूलती पंखुड़ियों से...
सुनो...
अच्छा लगता है न...?
खिडकी से आते हुए...