...

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सुनो...अच्छा लगता है न...?
कभी कभी छोड़ कर मष्तिष्क की
सब शिराओं का साथ
मैं अपलक निहारती हूँ प्रकृति की निर्-भेद
निश्छलता को...
बात करती हूँ उससे... स्वयं से...

जैसे नन्हा शिशु... बात करता है...
खाली दीवारों से...
रोशनी के पीले बल्ब...
और पंखे की झूलती पंखुड़ियों से...

सुनो...
अच्छा लगता है न...?
खिडकी से आते हुए
धूप में जगमगाते...
इन नाचते हुए
स्वर्णिम धूल के कणों से...
यूँ ही ...जी भर
जी' की
बात कर लेना...

हवाओं में झूलती हुई
पेड़ों की शाखों से...
जैसे शैशव बात करता है
नन्हीं फुदकती
बया'ओं से...

कौव्वे की कर्कश तानों से...
स्वयं ही खेलता... मुस्कराता हुआ...
कुदरत के सान्निध्य में...

सुनो... कभी - कभी
छोड़ कर मष्तिष्क की सब शिराओं
का साथ...
बस यूँ ही अपने रीते पन से
बात किया करो न...

पृथ्वी की कोख से जन्में
नव-पल्लव... नवजात शिशु की तरह...