हर रोज़
दिन नया निकलता है
हर रोज़
वक़्त सभी का बदलता है
हर रोज़
यूं तो कश्ती डगमगा ही जाती है अक्सर नदी के बहाव से
तो क्या किनारे ही बैठे रहें डरकर??
सैलाब तो उठा नहीं करते
हर रोज़
हर रोज़
वक़्त सभी का बदलता है
हर रोज़
यूं तो कश्ती डगमगा ही जाती है अक्सर नदी के बहाव से
तो क्या किनारे ही बैठे रहें डरकर??
सैलाब तो उठा नहीं करते
हर रोज़
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