...

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माहवारी एक त्यौहार!
आयी जब मेरे द्वार, ये चार दिनों का वार|
केवल थी ग्यारह पार, बिल्कुल ना थी तैयार|

चीर पें लाल रंग पक्के,
देख रह गई हक्के- बक्के|
वो तो थे खुन के थक्के,
अब छुटे मेरे छक्के||
क्या कोई बिमारी थी,
जो रक्तों से स्नान करायी थी?
लगा अब हुई जग परायी,
बतलाई तू क्यों नहीं, माई?

आयी जब मेरे द्वार, ये चार दिनों का वार| करना ना तुम प्रचार, सिखलाई माँ लोकाचार ||

माँ, मैं उनका भी एक अंश,
होगा ना कोई विध्वंस,
वो जाने चार का छंद,
और मेरा हर मन-द्वंद|
फिर दादी को आया ध्यान,
बोली, छुना नहीं तुम भगवान,
रखना मेरे शब्दों का मान|
सच, हो जाता देव अपमान?

आयी जब मेरे द्वार, ये चार दिनों का वार|
करने गई अचार शिकार,माँ झट ली काली अवतार||

जब आती मासिकधर्म,
साथ लाती है ये मर्म,
ये मर्म बड़ा निरमम,
हर नारी में ये क्रम||
अब बित गये दस वर्ष,
राह तकती हूँ सहर्ष,
कब आये दिन उन्तीसवा,
हो जाए ये करिश्मा||

आती जब मेरे द्वार, रहती हूँ सहर्ष तैयार|
नहीं चार दिनों का वार, माहवारी एक त्योहार||
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