ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
प्यार जब से रौशनी को तीरगी से हो गया
दिल मिरा नाराज़ तब से हर किसी से हो गया
न तड़प है न सिसक है न ही मातम है कहीं
दूर जब से आदमी भी आदमी से हो गया
जो नहीं मुमकिन कभी दिल कर रहा वो ख़्वाहिशें
इश्क़ सहराओं को जैसे इक...
प्यार जब से रौशनी को तीरगी से हो गया
दिल मिरा नाराज़ तब से हर किसी से हो गया
न तड़प है न सिसक है न ही मातम है कहीं
दूर जब से आदमी भी आदमी से हो गया
जो नहीं मुमकिन कभी दिल कर रहा वो ख़्वाहिशें
इश्क़ सहराओं को जैसे इक...