...

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मिलोगी भी या नहीं.....!
तुम्हारी उड़ान जो
भर देती है आसमान,
हम ने देखी है, और देखा है
पवन का तुम्हे छू कर थरथराना,
तुम्हरा बहना देखा है हम ने
तट बनकर,
तुम्हें छुने कि कोशिश करते
महसूस किया है, तुम्हरा
फिसलना, हर बार, बार बार,
और....
हम रह गए हैं ढहते ढहते यूं,
जानें कब से चल रहा हूं--
तुम्हारे साथ, तुम्हारी....
छाया को छूते... तुम्हारे
होने का एहसास करते,
उन रास्तों पर, जो
दृष्टि के सीमा में ही
मिल जाता है तुमसे,मुझे...
कभी कभी लगता है डर, कि
कहीं हम रेल की पटरियां तो नहीं,
जो साथ तो चलती है, मगर
मिलती कभी नहीं....!