...

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रात एक किताब
सोता कोई बेसुध मगन
देखे कई फिर ख्वाब नयन
खोकर कोई इस चैन को
जागे है रैन, जीने को वही
होकर अधीर है कुछ व्यथित
बिसराकर करता जश्न कोई
गुंजायमान होता उल्लास कही
अवसाद मे लिपटा कोई
भरता सिसकिया वक्त कभी
तत्पर कही आने को उत्सव
खामोशी की फैली है चादर
है शोर का भंडार भी
ओट मे तम के बहुत
छिप रहे चित्त को बचा
धुंधला सा बन अक्स कही
लेता जन्म फिर नव भरम
चेतन , अचेतन की डगर
है चल रहे , सब छोड़कर
है रात तो किताब सी
है रंग भी ,काला ही बस
लिखती पर स्याही रंग बदल।
पन्ने तो कोरे है मगर
लिखते है सब हिसाब बदल।