...

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धागे
उलझे उलझे धागे..
बांधी गाठें मन में
डोर हुई ना रेशम
ना उड़ सकी पतंग
सिल ना पाए छज्जे..
बुनते झीनी चादर?
कौन हो पाया कबीर?
आंखें बुनती पर्दे..
उलझे उलझे धागे
वक्त के पावों में
काट दिए सब,
कठपुतलियां अब
आज़ाद हो गईं...


© आद्या