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स्मृतियाँ तुम्हारी ...!
आधी धूप..
आधी छांव, ओढ़े...
तुम्हारे ध्यान की धूप में
तप रही है देह...!
और... किसी सृजन बीज की तलाश में
मेरे शब्द...!!
बीज़...
जो पल्लवित हों
जिस के पुष्पों से बना सकूँ
तुम्हें वरण को, हार...
और तुम्हारी खुशबुओं में तर...
सुगंध से...
भर जाए... मेरा कमरा...
मुझे कोई शीघ्रता नहीं है...
कलम को भी
कोई उतावला पन नहीं है!!
आधी धूप,
आधी छाँव ओढ़े...!
प्रकृति के सानिध्य में
कलरव के मध्य...भानु के समक्ष!
तुम्हारे ध्यान में तप रही हूँ मैं,
और मेरे शब्द...!!
आधी छांव, ओढ़े...
तुम्हारे ध्यान की धूप में
तप रही है देह...!
और... किसी सृजन बीज की तलाश में
मेरे शब्द...!!
बीज़...
जो पल्लवित हों
जिस के पुष्पों से बना सकूँ
तुम्हें वरण को, हार...
और तुम्हारी खुशबुओं में तर...
सुगंध से...
भर जाए... मेरा कमरा...
मुझे कोई शीघ्रता नहीं है...
कलम को भी
कोई उतावला पन नहीं है!!
आधी धूप,
आधी छाँव ओढ़े...!
प्रकृति के सानिध्य में
कलरव के मध्य...भानु के समक्ष!
तुम्हारे ध्यान में तप रही हूँ मैं,
और मेरे शब्द...!!
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