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गैंगस्टर
गैंगस्टर

वह कोई आसमान से नहीं टपकता ना हीं बनता है रातों-रात
कोई घड़ा जैसे गढ़ा जाता है
अपनी काली मिट्टी और आबो-हवा से
उसे भी गढ़ा जाता है धीरे-धीरे

हल्की-फुल्की घटनाओं से
छोटे-बड़े कांड तक
जैसे छिनतई करने को
फिर नहीं देनें पर चाकू मारने को
उसे बार-बार कहना नहीं पड़ता
सीखता जाता है सारे गुर
थाने के रिकॉर्ड में
दर्ज किया जाता है
एक अदना-सा अपराधी
छोटे-मोटे वारदातों को अंजाम देता

चुनाव के पूर्व
फिर अचानक से बढ जाता है
उसका रसूख उसका मोल-तोल
और परिणाम आते हीं
एकबार फिर चर्चित हो जाता है
जब दिन-दहाड़े ठोक देता है किसी को सरे आम
अब पुलिस भी उसका बाल बाँका नहीं कर पाती
अब वह कहीं से भी छुटभैया नहीं होता
वह अकड़ दिखाते निकलता है
मुहल्ले और चौक-चौराहों से
अपने लाव-लश्कर समेत

इस तरह..
गढ़ा जाता है उसे
चाक पर अदृश्य हाथों से
एक कहावत है--
जिस दिन भर जाता है पाप का घड़ा
उस दिन उसे फूटना हीं है
एक दिन होता है उसका भी खेल खत्म..
कई बार तो नाटकीय अंदाज़ में उन्हीं अदृश्य हाथों से..