गज़ल
पहले जो था खुमार ओ खुमार आती नहीं है।
बूढ़े दरख्त पर फिर से बहार आती नहीं है।
पहले बुलबुले चहचाहती थी जिस साख पर।
उस साख पर फिर से कोई आती नहीं है।
शायद गुल में अब ओ तवानाई नहीं है।
इसलिए अब तितली ओ बलखाती नहीं है।
एक चोट पर मरहम जो लेकर के थे आते।
अब दर्द का मरहम वो ले आती नहीं हैं।
© abdul qadir
बूढ़े दरख्त पर फिर से बहार आती नहीं है।
पहले बुलबुले चहचाहती थी जिस साख पर।
उस साख पर फिर से कोई आती नहीं है।
शायद गुल में अब ओ तवानाई नहीं है।
इसलिए अब तितली ओ बलखाती नहीं है।
एक चोट पर मरहम जो लेकर के थे आते।
अब दर्द का मरहम वो ले आती नहीं हैं।
© abdul qadir