...

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इंसान
फूल हूं एक चराग़ हूं
मैं कौन हूं अंजान हूं
क़ाफिलों से दूर हूं
ख़ुद ही की तलाश हूं
मुझे ग़ौर से देखने पर
आप सा ही इंसान हूं

किसी नदियां की धार पर एक पत्थर बिन किनारे
खड़ा है अपने वजूद को बचाए वहीं मजधारे
बिखरी हुई उस धार में वो ख़ुद को कैसे जानता है
वो पानी नहीं एक पत्थर है ये सच कैसे पहचानता है
क्यों बहता नहीं वो इस धार में क्यों उसने रुकने की ठानी है
क्यों चोट खा रहा है वो दे रहा जो दर्द नदियां का पानी है
क्या ऐसा ही मेरा वजूद है या कंकर सा बहना रिवाज़ है
ये नदियां क्या मेरी हक़ीक़त है या आब मेरा लिबास है
क्या पत्थर हूं मैं या पानी हूं जाने किसकी अधूरी कहानी हूं मैं
उलझा हुआ हूं बहोत ही मगर दूर से देखो तो आसान हूं
मैं भीड़ में हूं आप की अनूठा मगर आप सा ही इंसान हूं


इल्ज़ामात के इस जहान में मुझे कुछ घूटन सी होती हैं
इन अदालतों के रास्तों पर गिरे मासूम जानों के मोती है
कभी सोचता हूं कि ऐसे जहान में जीना भी क्या जीना है
जो अपने आप को बेचते है कैसा उन मुर्दों का भी सीना है
यही है हक़ीक़त तो ऐसी हक़ीक़त तो ठुकरा देना अच्छा है
इंसानियत है जो इतनी बूरी तो इसे दफना देना अच्छा है
मैं तो ऐसा नहीं हूं ना ही कभी बनना चाहूंगा
ख़ुद से भले अंजान हूं पर मुझे देखो मैं एक इंसान हूं
आप का ही अक्स हूं मैं आप में से एक हूं
मैं जानता हूं आपको अमन को अपनाना बुरा नहीं
मेरा हाथ थामों यक़ीन करो मेरा मैं आप की अमान हूं
जो कहने आया हूं सुनलो उसे मैं आप सा ही इंसान हूं



© Pavan