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तुम घर में करती ही क्या हो
सूरज की पहली किरण के साथ जग जाती
अपने सपनों को छोड़ जिम्मेदारियों में लग जाती

बच्चों की मुस्कान उनके सपनों की उड़ान
हर पल उसकी मेहनत हो अपने घर पर कुर्बान

रसोई में उसकी मेहनत घर की रौनक में उससे सजी
हर एक कोने में उसकी ममता हर दीवार सुन्दर बनी

कभी कपड़े तह करना कभी धोना कभी घर साफ करती
उसके कदमों की आहट घर के हर एक हिस्से में बसती

उसकी आँखों में दर्द दिल में झलकती मूक वेदना
कितना मुश्क़िल होता है उसको ये ताना सहना

जब तुम कहते हो तुम घर में करती ही क्या हो?
ये पूछते हुए तुम्हारे अंदर नहीं ज़रा भी दया हो
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