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कोरा कागज़ का मेरा मन , लौटा दो मुझे मेरा बचपन
शीर्षक - बचपन

कोरा कागज़ का मेरा मन
लौटा दो मुझे मेरा बचपन
क्यों होता है छोटा सा बचपन
लौटा दो मेरा जीवन
जिसमें ना राग-द्वेष होता है
ना होता है कड़वा मन
ऐसा होता है पवित्र सा बचपन
लौटा दो मुझे मेरा बचपन

ना किसी का ग़म ना किसी की टेंशन
बस टूटता है तो वो है खिलोनों का तन
घर ही होता है संसार
जिसमें गोता लगाता है तन और मन
देखो कहीं मिल जाए वो क्षण
ले लेना मुझसे जवानी का मन
लौटा दो मुझे मेरा बचपन

याद आती है वो गलियां और वो आंगन
जहां दादी और मां बीनती थी
धान का कण-कण
वो गुड़िया के बाल वाले की घंटी
बजती थीं जब टन-टन
तभी दादाजी की जेब भी करती थी खन -खन
उसी ओर बावला हो चलता था बाल मन
लौटा दो मुझे मेरा बचपन

रातें ढलती थी दादी-नानी
की कहानियां सुन-सुन
दिन बीतता था खेल-कूद में
क्यों नन्हा-सा था बचपन
क्यों बीत गया मेरा बचपन
मैं त्याग दूंगा तन और मन
लिखना है मुझे उस कोरे कागज़
पर बहुत कुछ अब क्या बताऊं इस क्षण
लौटा दो मुझे मेरा बचपन।

© Pradeep Raj Ucheniya