...

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समय अजब है हम अपनो में भी अपनापन ढूढ़ रहें है।
समय अजब है हम अपनो में भी अपनापन ढूढ़ रहें है।

सुख गया मधुरस रिश्तों का लगे अपरचित भाई भाई।
संबंधों के पुल के नीचे खींची हुई है गहरी खाई।।
नागफनी के विरवे बोकर हम चंदन बन ढूंढ रहें है।।
समय अजब है....

तन उबटन से लीपे पुते हैं मन के ऊपर पड़ी खरोंचे।
अपने ही नाखून आजकल खुद अपना ही चेहरा नोचे।।
नदिया का व्यवहार चुकाने सुखा सावन ढूंढ रहें है।
समय अजब है......

हमको जिनमे ये लगता था नेह समर्पण सब शामिल है।
पता चला उन रिश्तों में तो केवल इक मतलब शामिल है।।
किस तट पर हम इन रिश्तों का करें विसर्जन ढूंढ रहें है।
समय अजब है.............

बुनकर रेशम से कर डाले पक्के सब राखी के धागे।
लेन देन के बाजारों में लेकिन रिश्ते हुए अभागे।।
अब चेहरों पर चढ़े मुखौटे दर्पण सा मन ढूंढ रहें है।
समय अजब है......
© Ananya Rai Parashar