...

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दंगे की काली रात!
आंखो से आंसू टप-- टप टपक रहा था,
अंधियारी रात में पानी झम झामा कर बरस रहा था
पर
बस्ती में आग थी नफरतों की
उस आग की लपक में राख़ इंसानियत थी,
लेकिन
अस्थियां मासूमों की बही,
उस चीख की आवाज से डरे पेड़ सहमे पंक्षी थे
आज "बेगम" राधा की चुनरी सिना भूल गई थी,
सूर दास की धुन की सार भी धूल गई।
इतिहास की लिखने की टक-- टक थी
पन्नों में सार था जो जंग खा गया था,
वो याद थी जिसमे, डर से भरी राहे
डर से भरी निगाहें थी, हा वो वहीं यांदे थी।
© reality mirror