...

6 views

"कर्ज़ कुंड"


दिल मे एक सरगम सी सजी,
सपनो की रानी की बारी आई,
एक एक ईंट सजाया उनके मन से,
जिसने जीने मरने की संग कसमें खाई।

सोचा ये तो अपनी है,
हर डगर पर मेरा साथ देगी,
जब जब लड़खड़ाएंगे कदम मेरे,
हाथों में अपना हाथ देगी।

बन्द किया आंखों को मैंने,
प्रेम सागर में डूब जाने को,
लाखों कर्ज़ लिया उसके लिए,
उसके सपने को हकीकत बनाने को।

हर जगह खुशी का उसके,
कोई भी पैमाना ना था,
मेरे लिए उसके सिवा,
संसार मे कोई नजराना ना था।

2 वर्ष ऐसे ही बीत गए,
अब परिवार बढ़ाने की बारी थी,
जिनसे लिए थे पैसे,
उनको चुकाने की बारी थी।

संतान प्राप्ति की सूचना ने,
मुझे हर्ष विभोर किया,
प्रेम चढ़ा फिर ऊंची चोटी पर,
दोनो ने एक दूजे के दिल मे शोर किया।

अब कर्ज़ चुकाने की घड़ी आयी,
जीवनसाथी को सारी बात बताई,
धीरे से उनके हृदय में विष किसी ने घोला,
मैं उनको धोखा नही दूंगा सीना ठोक के बोला।

कभी वो मान जाती बात मेरी,
कभी अंध विरोध होने लगा,
निर्दोष होने के बावजूद भी,
संतान रक्षा हेतु छुपकर रोने लगा।

मनोस्थिति संगिनी की प्रतिदिन बिगड़ने लगी,
भय के मारे मेरी धमनियों कंपन्न करने लगी,
आवेश में माँ के घर वो चली गयी,
बेइज्जती हुई बहुत ओर आत्मा छली गयी।

3 महीने पश्चात मैंने उनको घर मे लाया,
पूरे सेवा भाव में सन्तान सुख को पाया,
खुशी का माहौल चारो ओर छा गया,
ऐसा लगा मानो अच्छा वक्त लौट के आ गया।

धीरे धीरे बच्चे के प्रति सबका लगाव बढ़ गया,
जीवनसाथी के हृदय में पुनः शक घर कर गया,
अपने लोगों तक से मेरा नाता टूट गया,
चारित्रिक दोषारोपण से हृदय का कण कण रुठ गया।

प्रेम था इतना सीने में,
परिवार ने बच्चे को आठो पहर प्यार दिया,
खाना-पीना मालिश सब काम,
सबने बच्चे को हाथों हाथों में थाम लिया।

साथी की मानसिक प्रतारणा के बावजुद,
रोज उनके साथ घूमना फिरना जारी रक्खा,
बच्चे और माँ के स्वास्थ्य हेतु,
ख़ुद के स्वाभिमान का गला घोटना जारी रक्खा।

स्वस्थ होने पर उनका हृदय बाल काल मे जाता था,
उस निर्मल परिदृश्य में सब कष्ट भूल जाता था,
एक रात्रि फिर उन्होंने अपशब्दों का अस्त्र चलाया,
मैन स्वयं के विवेक से स्थिती के गर्भ में जाने से बचाया।

क्रोध वश उन्होंने सोते बच्चे को लेकर शोर मचाना शुरू किया,
मेरे उड़ गए होश जब बच्चे के प्राणों को संकट में देखा,
बड़ी मुश्किलों बाद बच्चे के जीवन को बचाया गया,
उसके बाद मेरे ही परिवार पर प्रतारणा का आरोप लगाया गया।

पहले घर के लिए फिर शादी हेतु कर्ज़ लिया,
जिंदगी के हर कदम पर बेवजह का मर्ज लिया,
अब आरोप के चक्कर मे फिर से कर्ज ले रहा हूं,
संतान हेतु जमा पूंजी गंदे नाले को दे रहा हूं।

झूठ और बेइज्जती की आड़ में,
पूरा परिवार आज संकट की फौज में है,
मेरे प्रेम की बलि चढ़ा,
जीवनसाथी आज मौन मौज में हैं।

प्रेम की निशानी को,
हथियार बनाकर मुझे तोड़ा जाने लगा,
संतान और संगिनी से संपर्क तक नही,
फिर से मानसिक प्रतारणा का वार आने लगा।

आखीर झूठ के दम पर परिवार को तोड़ना,
मज़बूरी है या सोची समझी चाल,
जीवनसाथी तो सच जानता है,
फिर उसके हाथ अपराध से सबसे ज्यादा क्यों लाल है।

अकेले आयें है सबको अकेले जाना है,
मृतसैया पर तो गैरों को भी यकीन आना है,
छोटे बच्चे की जिंदगी से क्या खेलना ज़रूरी है,
संबंधों में अपमान अहं का होना उनकी मजबूरी है।

विवाहित नारी का माँ के घर रहना,
ईश्वर की विधि के विपरीत कार्य है,
बच्चे को उसके हक से वंचित रखना,
किसी भी कर्म में नही स्वीकार्य है।
किसी भी कर्म में नही स्वीकार्य है।


© RamKumarSingh(राम्या)