...

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आसमान
छप्पर के अंबर तले
देखते थे कपास के पकौड़ो बिखरते हुए, कभी बिगड़ते हुए कभी पिघलते हुए
मेघ रूप में बरसते हुए
कभी आराम हराम करते हुए ।
उड़ते तो थे हम बचपन से
कभी बाड़े पे , कभी आसमान में
कभी तितली , कभी सतरंगों के पीछे
ऐनक थे हमारे अतरंगे से ।

एक अलग चहक थी ,
हमारी अलग ललक थी ,
कुछ करना चाहते थे ,
पता नहीं क्या होना चाहते थे ?

अंबर तले बढ़ते रहे , नमक अनुसार बदलते रहे ,
रास्ते नए पकरे
ऐसे तो थे वे पुराने से ,
राहगीर मिले , साथी मिले , सारथी मिले
बदलो से वे भी विचरते रहे
हम सकरे रास्ते में भी बढ़ते गए
केचुली का आवरण बदलते गए ।

ये पहर भी बीता
सबको बंद कमरे ने खीचा
सब एकांतवास को प्रस्थान हुए
जीविकोपार्जन और कुछ जीवन लिए परेशान हुए ।

ये घटा हटी ,
फिर मुस्कुराहट चहकी ,
कुछ खुले ,कुछ निखरे , कोई यादों में रह गए , कुछ आवरण में बंद हो गए ,
पता नहीं आसमान हमारा कहां खो गया ?
पता नहीं हम कौन हो गए ??

© Vatika
#nameit