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दुःख रुपी स्त्री!!
स्त्री का दुःख अनवरत टपकता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे रिसता है जल किसी अति प्राचीन जंग लगे नल से. जिस पर नजर तो सबकी पड़ती है, देखते सब हैं, प्यार बुझाने के लिए आतुर सब रहते हैं, किंतु उसे सही करना सबको गैर जरूरी सा लगता है!

स्त्री कभी अपने भावनाओं को व्यक्त नहीं करती और न वो कभी खुद के लिए जीती है। जो अपनी मुस्कान को खोकर सदैव अपनों की मुस्कुराहट से भर देती है।
वो नदी के तरह होती हैं, बार बार ठोकर खाने के बाद भी निरंतर बहती ही रहती है।

स्त्री हमेशा पेड की तरह होती है, जो हमेशा दूसरों को छांव देकर खुद धूप रुपी किरणों में तपती रहती है जिससे हमेशा दूसरों को ही सुख प्राप्त होता है।
वह हमेशा अपना त्याग करके अपने घरों को खुशियों से भर देती है!


स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं होती और यदि वह स्वतंत्रता चाहती है तो उसके समझ होते हैं दो विकल्प या तो वो विद्रोह करें या फिर अपने जीवन से समझौता करें,
किंतु अगर वो विद्रोह करे तो अपने को खो देती है यदि वो समझौता करे तो जिंदगी भर घूंट कर जीती है.
अगर वो कुछ भी चुने तो दोनों विकल्पों में उसकी हार ही होती है!
इसलिए वह एक जींदा लाश ही होती है जिसकी ना कोई चाहत पूरी होती है और न ख्वाहिश ही, सब उनके मन में ये कल्पना मात्र ही रह जाता है।
वह एक बुझी हुई तिली की तरह होती है जो कभी भी किसी शम्मा को जलाकर घर रौशन नहीं करती हैं!!
😊❤️🙏
_ ऋषिकेश तिवारी