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दुःख रुपी स्त्री!!
स्त्री का दुःख अनवरत टपकता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे रिसता है जल किसी अति प्राचीन जंग लगे नल से. जिस पर नजर तो सबकी पड़ती है, देखते सब हैं, प्यार बुझाने के लिए आतुर सब रहते हैं, किंतु उसे सही करना सबको गैर जरूरी सा लगता है!

स्त्री कभी अपने भावनाओं को व्यक्त नहीं करती और न वो कभी खुद के लिए जीती है। जो अपनी मुस्कान को खोकर सदैव अपनों की मुस्कुराहट से भर देती है।
वो नदी के तरह होती हैं, बार बार ठोकर खाने के बाद भी निरंतर बहती ही रहती है।

स्त्री हमेशा पेड की तरह होती है, जो...