...

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किताब
एक किताब को पढ़ने की चाह में
उसके हर पन्ने को पढ़ना चाहा
एक एक अक्षर को पढ़ते-पढ़ते
हर एक शब्द को समझना चाहा
समझ आने लगी जब वो किताब तो
हवा के झोंके से पन्नों ने फटना चाहा
जिद्दी तो हूँ मैं भी बहुत
हवा के रूख़ को हीं मोड़ना चाहा
पर शायद! ज़िद तो उन पन्नों में भी थी
उन्होंने भी फटना ही चाहा
फटने से तो रोक ना पाई
फिर मैंने भी उनको ना जोड़ना चाहा
'बिखरी थी वो किताब उस दिन
या फिर उसको पढने वाला ,
शायद मेरी तरह सबों ने भी
इसी बात को जानना चाहा। '