...

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वो मुस्कान !
जिंदगी तो कुछ यूं सी ही थी,न मकसद न ही मंजिल थी।
भीड़ में बस मैं चलता था ,अपने ही मन की करता था।

वो पहली सी एक लड़की थी,
मुस्कान लिए, पैनी नजरो से न जाने क्यूं रोज परखती थी।

मैं भी सोचूं क्यूं देखे ये मुझे,किसी और बैच की लड़की थी
कॉलेज का वो दौर जो था,कैंटीन में नजर बस मिलती थी।

यार चिढ़ाते ,तुझे ही देखे है वो,
उन कमीनो की कहां मैं सुनता था।
उस दिन उन नजरो ने छू ही लिया,आखिर उसने आगाज किया।

आते ही शिकायत की उसने , तुम क्यू अपने में रहते हो
जब जाते हो तो...