...

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वो मुस्कान !
जिंदगी तो कुछ यूं सी ही थी,न मकसद न ही मंजिल थी।
भीड़ में बस मैं चलता था ,अपने ही मन की करता था।

वो पहली सी एक लड़की थी,
मुस्कान लिए, पैनी नजरो से न जाने क्यूं रोज परखती थी।

मैं भी सोचूं क्यूं देखे ये मुझे,किसी और बैच की लड़की थी
कॉलेज का वो दौर जो था,कैंटीन में नजर बस मिलती थी।

यार चिढ़ाते ,तुझे ही देखे है वो,
उन कमीनो की कहां मैं सुनता था।
उस दिन उन नजरो ने छू ही लिया,आखिर उसने आगाज किया।

आते ही शिकायत की उसने , तुम क्यू अपने में रहते हो
जब जाते हो तो लगता है मेरा मन भी ले चलते हो।

मैं कबसे देखा करती हु, तुम यारों में ही रहते हो
जब जब कैंटीन मैं आती हूं ,बस तुमको देखा करती हूं।

तुम भी पागल हो बुद्धू हो, क्यों मेरा मन न समझते हो
मैं भी बोला मैं डरता हूं ,दिल न टूटे मैं बचता हूं।

मुस्कान तुम्हारी कातिल है, आंखें ये तेरी रूहानी है
जो डूब गया गर तुझमें मैं,आशिक बनने से डरता हूं।

लेकिन अब मैं मजबूर हुआ, तेरी मुस्कान ने कुछ यू है छुआ।
छह साल हुए इस बात को अब, आंसू अब न रुकते है।

आई तो थी वो झोंके की तरह,समाज ने गर मिलने ना दिया।
हमदम मेरी तो बन न सकी , वो मुस्कान अभी भी बसती है।

आशिक बनने से डरता था, आशिक बना ही अब फिरता हूं।
प्यार उसी से करता था, बस खुद में ही अब रहता हु।
चलते फिरते बस भीड़ में अब ,हर अक्स में उसे ही जीता हुं।


~AkS







© Aks Kabir