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"चिट्ठियों का कत्ल"
ये मृत्यु नही है
मोबाइल फोन ने चिट्ठियों का गला घोटा है। अकेलेपन से उपेक्षित हो कर सिसकती सिसकती जी रही थी, नए दौर की आड़ में इनका कत्ल कर दिया गया।
जो कभी लोगो के हृदय का अविभाजित हिस्सा थी
कब अतीत के पन्नो का हिस्सा हो गई उन्हे स्वयं ही पता नहीं चला।
कितने खोखले थे वो लोग जो तकिए के नीचे छुपा के रखते थे खत कभी, अभी अभी नए मनमीत मोबाइल फोन को पाकर ऐसे भूले की, शुक्रिया भी नही कह सके उन खतों को जिनसे उनको उनके प्रियतम की खबर मिला करती थी, जो उनके दुख सुख का संदेशा लेकर आती थी, जो बाते करती थी उनसे, जो साथ रहती थी उनके, अचानक ऐसा क्या घटित हुआ की सब बदल गया।


"जाने कितने ख्वाब समेटे रहती थी खुद में चिट्ठियां
कुछ आशू कुछ खुशियों से भरी रहती थी जिनसे मुट्ठियां
प्रियतम के वो मीठे बाते, प्रियतम की नाराज़गी
स्याही में थी गंध मीत की, सोंधी सोंधी ताजगी
कह जाती थी बिन बोले भी सारी सारी बतीया
जाने कितने ख्वाब समेटे रहती थी खुद में चिट्ठियां

लेकर खत अपनो का, डाकिया जब आता था
कैसे कह दूं मन मयूर, कैसे कैसे इठलाता था
कितना मजा था उन खतों को महीनो पढ़कर मुस्काते थे
और कभी तो आंखों से आसूं भी आ जाते थे।
रिश्तों की डोर को बांधे रखती थी ये अदृश्य सी रस्सियां
जाने कितने ख्वाब समेटे रहती थी खुद में चिट्ठियां

फिर आया एक नया दौर, फिर आई एक नई होड़
फिर खत पुराने हो गए, कुछ जल गए, कुछ खो गए
कुछ छोड़ के अपने प्राण पखेरू सदा सदा को सो गए
अब कोई साथी नहीं विरह का, अब कोई साक्षी नहीं जिरह का
चैट बॉक्स सा प्रेम सभी का, कब आता, कब जाता है
थोड़ी सी भी गर अनबन हो, संबंध डिलीट हो जाता है।
फिर कैसे भी लौटा दो, वो यादें सारी मिठ्ठियां
जाने कितने ख्वाब समेटे रहती थी खुद में चिट्ठियां"









© वियोगी (the writer)