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घर में भी दीवार थी....
दीवारों का घर था
घर में भी दीवार थी
खिड़की खुलती भी थी
मगर वो बेकार थी
हवायें भी बहती थी
न घर के आर पार थी
उधर कील ठुकती थी
यहाँ पे जिगर पार थी
लड़ाई की वजह न थी
मगर रोज तकरार थी
रिश्तों की चादर थी
पर वो तार तार थी
खून क्यूँ बंट गया था
दूध की ये हार थी
भाई दीवारें ढहा देते
बीवियां रौबदार थी
कहानी जो सुन रहे थे
अच्छी की बेकार थी
संजय नायक"शिल्प"
© All Rights Reserved
घर में भी दीवार थी
खिड़की खुलती भी थी
मगर वो बेकार थी
हवायें भी बहती थी
न घर के आर पार थी
उधर कील ठुकती थी
यहाँ पे जिगर पार थी
लड़ाई की वजह न थी
मगर रोज तकरार थी
रिश्तों की चादर थी
पर वो तार तार थी
खून क्यूँ बंट गया था
दूध की ये हार थी
भाई दीवारें ढहा देते
बीवियां रौबदार थी
कहानी जो सुन रहे थे
अच्छी की बेकार थी
संजय नायक"शिल्प"
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