...

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तक़दीर यूं बन के मिटा करती हैं....
पहले ... जीवन में रहा मुद्दतों अकेलापन ...
मन में छाया रहा सुबह शाम ... एक सूनापन,
बस फिर हुआ यूं कि अचानक किसी रोज़...
किसी ने दिल के दरवाज़े पर दस्तक दे दी!

दिल में किसी के यूं चुपचाप चले आने से बहार आई
जैसे हर तरफ फूल खिल उठे बहुत सारे,
जैसे फैल गई फिजाओं मे हर तरफ खुशबु
जैसे मौसम ए बहार का छा गया ... दिल में जलवा!

फिर यकायक बदल गया ये समां
बहार के कुछ ही दिन बाद पतझड़ का मौसम आया
झड़ गए मन के अरमान ... खिजां में सारे,
दिल हुआ जैसे दर्द का इक आशियाना...
तंग आकर आखिर मैंने चमन को छोड़ा !!

और अब ...
गुलशन से अलग ... इक दुनियां है
वही बे रंग, बे नूर सी... इक दुनियां है,
कोई साया नही, कोई हमदर्द नही,
हां मगर ये है कि ... सर में कोई दर्द नहीं!

एक सन्नाटा है ....
और कोई इंतजार नही,
चाहत का शौक़ नही
मिलन की आस नहीं,
लब पर आह नहीं
दिल में गिला शिकवा भी नहीं,
दिल को न बहार की तमन्ना है अब
न अब शौक़ है मुझको ... किसी की चाहत का!!