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मोहब्बत


मोहब्बत बहुत तकलीफ़ - देह होती है। जब मैं ये ग़ौर करती हूँ के वो मुझे ग़ौर से नही देखता। उसकी आधी तवज्जोह को मुकम्मल तवज्जोह तज्वीज़ कर ख़ुद को दिलासा देना पड़ता है। उसका बँटा हुआ वक़्त जब - जब मेरी झोली में गिरा तो उसे तबर्रुक मान कर आँचल से बांधा है मैंने। अगर वो कभी मिलने आए तो उसकी चाय के कप में शक्कर घोलती हूँ, और अपने कप में शिकवे घोल कर पी जाती हूँ। पूरे होश में इत्तिफ़ाक़न भी उसका हाथ मेरे हाथ को नहीं छूता और मैं नींद में भी खाली बिस्तर पर आदतन उसका हाथ ढूंढती हूँ। मैं खुद से कहती हूँ के उसका हंस बात कर लेना भी तो मुझ पर कितना बड़ा एहसान है, और ऐसी बातें ख़ुद से कर मैं ख़ुद ही अपनी मुहब्बत को ख़ुद की नज़रों में अज़ीम बना लेती हूँ। और अपनी मुहब्बत को अज़ीम बनाने की कोशिश मेरे लिए तकलीफ़ - देह है, बहुत तकलीफ़ - देह ।