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दास्तान्-ए-इश्क़
चाहती हूँ कि हो जाए तुम्हारा नाम अमर
इसे लिख रही हूँ मैं दिल की दीवार पर
इश्क़ की तहरीरें तुम पढ़ो मिरी आँखों में
क्या नज़रें जमाए बैठे हो यार अख़बार पर
मेरी बीनाई बढ़ने का राज़ पूछते हैं लोग जब
कह दूँ कि रख देती हूँ मैं इन्हें रुख़-ए-यार पर
अब किसी और की मुझको ज़रूरत नहीं
इक तुम्हारा ही नाम है दिल और ज़ुबान पर
कुछ इस तरह लिखनी है मुझे कि तुम
हर्फ़-दर-हर्फ़ नाज़ करो हमारी दास्तान पर
इसे लिख रही हूँ मैं दिल की दीवार पर
इश्क़ की तहरीरें तुम पढ़ो मिरी आँखों में
क्या नज़रें जमाए बैठे हो यार अख़बार पर
मेरी बीनाई बढ़ने का राज़ पूछते हैं लोग जब
कह दूँ कि रख देती हूँ मैं इन्हें रुख़-ए-यार पर
अब किसी और की मुझको ज़रूरत नहीं
इक तुम्हारा ही नाम है दिल और ज़ुबान पर
कुछ इस तरह लिखनी है मुझे कि तुम
हर्फ़-दर-हर्फ़ नाज़ करो हमारी दास्तान पर
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