...

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डर डर डर
हर वक्त हर दिन उसी को चाहा था,
जीसकी मुझे ख्वाहिश थी
वो तो बस एक सपना सा था
इंतेजार तो हर वक्त ऊस जीत को पाने का था,
लेकीन जीत से जीत के वो ख़ौफ़
मुझे हर वक्त सताता था,
चंचल मन दर बदर भटकता था,
मेरी नाकामी देखने वो हर पल बस तरस्ता था,
मेहनत से ज्यादा वो नसीब को चाहता था,
वो और कोई नहीं बस मेरा ही शैतान मस्तिष्क था,
डर को डराना तो खुद मेरे ही हाथ में था,
लेकीन उसिको मैने अपना बहाना बनाया था......
© Sans