...

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रात की ख़ामोशी में
ये कैसी स्याह रात है,
जिसकी नहीं कोई भोर है।

ये कैसी अंतहीन सफर है,
जिसका नहीं कोई छोर है।

रात की ख़ामोशी में,
ये कैसी सिसकती शोर है।

ये किसकी बहती लोर है,
जो खींच रही अपनी ओर है।

ये कैसी करून पुकार है,
जिसका नहीं कोई तोड़ है।

रात की ख़ामोशी में,
ना जाने किसकी,
ये भींगी आँचल की कोर है।