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एक चीख़, जो कभी कोई सुन ही नहीं सकता 😊
ये नज़रों की ज़मी जैसे सूख-सी गयी है मेरी,
जैसे कोई बंजर हो, यूँ गला बैठ गया है
कि बरसों हो गए, हम रोए भी नहीं हैं
हाँ बयां तो नहीं करूँ कभी मैं आख़िर अपने इन
हालतों की वजहों को, मग़र
हमको याद भी नहीं शायद, कि हम अपने पूरे बदन से कब मुस्कुराए थे
कि हाँ शायद अरसों हो गए, हम सुकूं की
नींद सोए भी नहीं हैं
कि हाँ, कल शीशे में देखा ख़ुद को जब
बाख़ुदा ख़ुद बख़ुद ख़ुद के अंदर जब झांका, तो कोई झिझक-सी हो गयी जैसे, और
मुकर-से गए हम ख़ुद की ही इस सच्चाई से, कि अन्दर महज एक लाश के सिवा
कुछ बचा ही नहीं है
हाँ, एक वो लाश जिसमें आज भी जिंदगी है
मेरे अन्दर की वो जिंदा लाश, जो मेरी है
वो लाश जिसके लबों के पीछे आज भी एक दबी-सी कराहती हुई, गीली-सी हसीं है
वो लाश जिसकी उस दर्दनाक-चीख़, दबे शोर को कभी कोई सुन ही नहीं सकता
हाँ उस लाश की वो चीख़ जो बेहद गहरी है,
वो चीख़ जिसे कोई कोई कभी सुन तो नहीं सकता, मग़र इसकी गूँज के सामने पूरी की पूरी क़ायनात भी कम है
उसकी वो चीख़, जिसकी तड़प की
कोई हदें नहीं हैं
वो चीख़, जो कहना तो बहुत कुछ चाहती है
मग़र हर बार अपने ही इन ख़ामोशियों के सुनसान श्मशान में तन्हा घूंट-घूंटकर
मर जाती है
हाँ वो चीख़ जो ख़ामोश है, बेहद ख़ामोश
किसी कब्रिस्तान से भी ज़्यादा ख़ामोश
हाँ, इक ख़ामोश चीख़
© Kumar janmjai
#DEMANDED BY SPECIAL ONE
#ख़ामोश चीख़
#PRINCEJAI
#Kumar janmjai
#THE JAI
जैसे कोई बंजर हो, यूँ गला बैठ गया है
कि बरसों हो गए, हम रोए भी नहीं हैं
हाँ बयां तो नहीं करूँ कभी मैं आख़िर अपने इन
हालतों की वजहों को, मग़र
हमको याद भी नहीं शायद, कि हम अपने पूरे बदन से कब मुस्कुराए थे
कि हाँ शायद अरसों हो गए, हम सुकूं की
नींद सोए भी नहीं हैं
कि हाँ, कल शीशे में देखा ख़ुद को जब
बाख़ुदा ख़ुद बख़ुद ख़ुद के अंदर जब झांका, तो कोई झिझक-सी हो गयी जैसे, और
मुकर-से गए हम ख़ुद की ही इस सच्चाई से, कि अन्दर महज एक लाश के सिवा
कुछ बचा ही नहीं है
हाँ, एक वो लाश जिसमें आज भी जिंदगी है
मेरे अन्दर की वो जिंदा लाश, जो मेरी है
वो लाश जिसके लबों के पीछे आज भी एक दबी-सी कराहती हुई, गीली-सी हसीं है
वो लाश जिसकी उस दर्दनाक-चीख़, दबे शोर को कभी कोई सुन ही नहीं सकता
हाँ उस लाश की वो चीख़ जो बेहद गहरी है,
वो चीख़ जिसे कोई कोई कभी सुन तो नहीं सकता, मग़र इसकी गूँज के सामने पूरी की पूरी क़ायनात भी कम है
उसकी वो चीख़, जिसकी तड़प की
कोई हदें नहीं हैं
वो चीख़, जो कहना तो बहुत कुछ चाहती है
मग़र हर बार अपने ही इन ख़ामोशियों के सुनसान श्मशान में तन्हा घूंट-घूंटकर
मर जाती है
हाँ वो चीख़ जो ख़ामोश है, बेहद ख़ामोश
किसी कब्रिस्तान से भी ज़्यादा ख़ामोश
हाँ, इक ख़ामोश चीख़
© Kumar janmjai
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