...

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एक चीख़, जो कभी कोई सुन ही नहीं सकता 😊
ये नज़रों की ज़मी जैसे सूख-सी गयी है मेरी,
जैसे कोई बंजर हो, यूँ गला बैठ गया है
कि बरसों हो गए, हम रोए भी नहीं हैं
हाँ बयां तो नहीं करूँ कभी मैं आख़िर अपने इन
हालतों की वजहों को, मग़र
हमको याद भी नहीं शायद, कि हम अपने पूरे बदन से कब मुस्कुराए थे
कि हाँ शायद अरसों हो गए, हम सुकूं की
नींद सोए भी नहीं हैं
कि हाँ, कल शीशे में देखा ख़ुद को जब
बाख़ुदा ख़ुद बख़ुद ख़ुद के अंदर जब झांका, तो कोई झिझक-सी हो गयी जैसे, और
मुकर-से गए हम ख़ुद की ही इस सच्चाई से, कि अन्दर महज...