...

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खुद्दारी...
कह भी दे सब बेखौफ हो कर
जो लफ्ज़ तूने कहीं गहरे दबाये है

अस्तित्व पर उठते कई पृश्न चिन्ह
जो नश्तर से इस रूह पर खाये हैं

क्यूँ सी लिया अपने इन लबों को
क्यूँ हज़ारों तूफ़ाँ दिल में दबाये है

हर बार हम ही क्यूँ सहे ये सब
क्यूँ हम ही खुद को सूली पर चढाये है

ना समझा था कभी ये जमाना
ना समझेगा कि कैसे खुद को मिटाये है

कितने जख्मों को सहे खामोशी से
और जाने कितनी ठोकरें खाए हैं

लड़े है खुद से भी अंधेरों में अक्सर
तब जाकर इस मुकाम को पाए है


© * नैna *