...

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माँ के हाथ का स्वेटर
आज अलमारी की सफ़ाई करते हुए
मेरे हाथ एक पैकेट आ गया
खोल कर देखा तो उसमें रखा था
माँ के हाथ का बुना हुआ स्वेटर
अहा .....
कितना सुन्दर रंग सुर्ख़ लाल
मुलायम और गरम
गाल से छुआया
तो जैसे माँ का स्पर्श पाया
कुछ पलों के लिए अतीत में चली गई
माँ उतनी बूढ़ी नहीं , मैं भी किशोरी थी
अरी तू भी सीख ले स्वेटर बुनना
कल मैं न रहूँगी तो बुन कर पहनना
और पहनाना अपने बच्चों को

पर अल्हड़ उम्र...
बांध न सकी उनकी ताकीद पल्ले
मैं न सीख सकी माँ के जैसा स्वेटर बुनना
समय बीता युग बदला
माँ तो न रही
पर उनका बुना स्वेटर याद ताज़ा कर गया
तभी बर्फीली हवा का एक झोंका
मेरा बदन सिहरा गया
मैंने रेडीमेड स्वेटर उतार माँ का बुना स्वेटर पहना
उस ब्रांडेड स्वेटर में वो गरमाई न थी
जो माँ के बनाये बरसों पहले के स्वेटर में थी
मन और आँख दोनों भर आईं
जब मैंने माँ के बुने स्वेटर की गरमाई पाई

अब परिदृश्य बदल चुका था ....
जहाँ कल माँ थीं अब वहाँ मैं थी
मेरी बेटी आज मेरी उसी उम्र में थी
मुझे वो स्वेटर पहने देख मचल उठी
माँ मुझे भी चाहिए ऐसा स्वेटर
मेरा मन नेह से भर आया
मैं भी दूँगी अपनी बेटी को यही स्नेहिल स्पर्श
सोच कर सलाइयाँ और ऊन का गोला उठाया
और बुनने लगी स्नेह के तानो बानो को
जो कल माँ से न सीख पाई
आज मुझे मेरी लाड़ो ने सिखाया

    पूनम अग्रवाल





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