...

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अनोखा मन
अनोखा मन ,
जो करना सब कुछ चाहे,
पर कर ना पाए कुछ,
जिसके मन में है ढेरो सवाल,
किसे पूछूँ, क्या पूछूँ, कैसे पूछूँ।

मन बोले कि
क्या हो अगर दिल ही पत्थर बन जाए?
क्या हो जब आशा ही छुट जाए?
क्या हो जब अपने ही मुड जाए?
क्या हो जब सांप भी उड़ने लगे?
किसे पूछूँ, क्या पूछूँ, कैसे पूछूँ।

क्यों कोई नही समझता मेरे दिल के हालात,
क्यों कोई नहीं सुनता मेरे मन की आवाज,
क्यों हर कोई लगाता है बेबुनियाद इल्जाम,
क्यों ये दिल रोता है, क्यों ये मन सिसकता है, क्या इसमें भी है जान? क्या ये भी बोलता है, क्या ये भी गाता है, क्या ये भी चलता हैं?
किसे पूछूँ, क्या पूछूँ, कैसे पूछूँ।

क्या इस जमाने ने लाज शर्म ही छोड़ दी है,
क्यों है इतना भेदभाव,
क्यों है इतना आगे बढने की होड़,
क्यों तरक्की के नाम पर दूषित हो गई हमारी पृथ्वी,
क्यों कोई नही रोकता इसे,
किसे पूछूँ, क्या पूछूँ, कैसे पूछूँ।

हर सुनसान गली मे एक जिंदगी नजर आती है, ज़मीन उसका घर है, आसमां की चादर ओढ़े सोता है किसी कोने पर।
क्यों कोहरा छा गया है मनुष्य के मन पर,
क्यों देखकर भी धुंधला नजर आता है इसे,
क्यों कोमल दिल को नहीं समझ पाते है लोग,
क्यों चाहिए इन्हें बाहरी सुंदरता,
क्या पवित्र हृदय काफी नहीं,
किसे पूछूँ, क्या पूछूँ, कैसे पूछूँ।
क्योंकि है बहुत उदास ये मन,
देखकर चाल मनुष्य की।