...

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दर्द छिपाने लगा..
ये अंधेरा घना कुहरा, ये मौसमों की सिहरन
ये मोटी ओस की बूँदे, और मेरा कंपकपाता सा तन..आज-कल कुछ और भाने लगा
आँशुओं में बूँदे, भीगे ओस की थी..बस इसी लहजे में मैं दर्द छिपाने लगा...
कोई जला ना देना मशालें यहाँ धूप की..मेरी सिसकती लकीरे उभर जाएंगी
उकेरती मुझे मेरी कोरी हया..सब बयां की जुबानी यहां सारी बिखर जाएंगी
फिर ये बुझता दिया मैं जला ना सकूंगा, फिर मैं अपना ये चेहरा दिखा ना सकूंगा
हूँ मैं अपने ही काँधे पे खुद को उठाए, अब इससे ज्यादा बोझ उठा ना सकूंगा
अब बस जो कतरे बचे मेरे ढहते किले में, इन्ही कतरो से खुद को दफनाने लगा
आँशुओं में बूँदे, भीगे ओस की थी..बस इसी लहजे में मैं दर्द छिपाने लगा...