घरकी डेहरी ✍️✍️✍️
घर की डेहरी अब बेहद अकेली बेहद उदास है
ना तो कोई घर में न बाहर न कोई उसके पास है
मजमा लगता था कभी मेरे इर्द गिर्द धूम होती थी
शामें बेहद रसमयी व अकेलेपन से महरूम होती थी
बचपन में तू मुझको पकड़ कर माँ को पुकारता था
कभी कभी मुझसे गुजरकर गली में आया करता था
अब मकान हैं दीवारें हैं डेहरी है पर बस घर नहीं है
रहबर सी रहबर रह गयी हूँ बस हमसफर नहीं है
बचपन की तोतली आवाज...
ना तो कोई घर में न बाहर न कोई उसके पास है
मजमा लगता था कभी मेरे इर्द गिर्द धूम होती थी
शामें बेहद रसमयी व अकेलेपन से महरूम होती थी
बचपन में तू मुझको पकड़ कर माँ को पुकारता था
कभी कभी मुझसे गुजरकर गली में आया करता था
अब मकान हैं दीवारें हैं डेहरी है पर बस घर नहीं है
रहबर सी रहबर रह गयी हूँ बस हमसफर नहीं है
बचपन की तोतली आवाज...