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बारह वर्षीय कुंभ मेला
सागर मंथन मिल कियो, सुर अरु असुर समाज।
मथनी मंद्राचल गिरी, रस्सी वासुकी अहि राज।।
तब प्राप्त हुए चौदह रतन, और वारुणी मदमस्त।
अति श्रम हारी काम था,पर हुआ न कोऊ पस्त।।
चौदह में धनवंतरी, हुए प्रकट कुंभ अमि धार।
मोहनी रूप बनाय हरी, बांटे पंक्ति के अनुसार।।
देवन को अमरत देवे, असुरन को मदिरा पान।
राहु जान्यो भेद को, बैठो जा सुर संग जान।।
मुख में अमृत ले लिया, तब लियो शशि पहचान।
चल्यो सुदर्शन चक्र जब, शीश काट अपमान।।
धोखा जाने असुर सब, फिर हुआ भयंकर युद्ध।
पाने अमृत कुंभ को, हुआ आपस गरजन द्वंद।।
सुरपति सुत जयंत ने, ले कुंभ उड़े आसमान।
बारह वर्ष नभ में हुयो, देवासुर भीषण संग्राम।।
छलक गई अमी कुम्भ से, तब बूंदें केवल चार।
नासिक उज्येनी प्रयाग मे, गिरी जहां हरिद्वार।।
गंगा तट पर दो जगह, अरु क्षिप्रा गोदावरी एक।
बारह बरस के बाद में, भरता कुम्भ मेला नेक।।
पौराणिक कथा सार है, धरियो गुणी जन ध्यान।
शब्द रचन है स्वरचित,मौलिक पंक्ति विधान।।