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दंभ:- निरर्थक सोच
सुनो स्त्री!
कभी देखे थे सपने, बन्द नहीं खुली आंखों से।
बदलते दौर में अपने वजूद के लिए,तो पूरा करो उन्हें।
क्यों करती हो आपस में द्वेष
बुराई,बराबरी.... कभी रूप की,कभी धन,कभी वैभव की ,कभी खुद के पुरुष को दिखा के।
ये सब तो नहीं हैं पड़ाव तुम्हारी यात्रा के ।
तुम्हे तो समेटनी है शक्ति ख़ुद की।
कब तक इस दंभ के सहारे मन को करती रहोगी संतुष्ट।
लगा देनी है पूरी ऊर्जा अपनी तुम्हे ख़ुद का शिल्पी बनने में।
और जब एक तुम बनोगी ना।
तो तुम द्वेष नहीं बनोगी... बनोगी सशक्तीकरण का कारण एक दूसरे के लिए।
अभिवृत्ति नाम है स्वाभिमान का
ना कि दंभ का।।

समीक्षा द्विवेदी

© शब्दार्थ📝