दंभ:- निरर्थक सोच
सुनो स्त्री!
कभी देखे थे सपने, बन्द नहीं खुली आंखों से।
बदलते दौर में अपने वजूद के लिए,तो पूरा करो उन्हें।
क्यों करती हो आपस में द्वेष
बुराई,बराबरी.... कभी रूप की,कभी धन,कभी वैभव की ,कभी खुद के पुरुष को दिखा के।
ये सब तो नहीं हैं...
कभी देखे थे सपने, बन्द नहीं खुली आंखों से।
बदलते दौर में अपने वजूद के लिए,तो पूरा करो उन्हें।
क्यों करती हो आपस में द्वेष
बुराई,बराबरी.... कभी रूप की,कभी धन,कभी वैभव की ,कभी खुद के पुरुष को दिखा के।
ये सब तो नहीं हैं...