...

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धूप
काँच की खिड़की,
मौसम का इत्र छिड़की,
किंमती सामाँ ज्यों ज़रदा,
उसपे लगा जालीदार पर्दा,
और उससे छन के आती धूप,
उतना ही उजाला जितना ज़रूरी,
उतनी ही गर्मी मीठी और करारी,
इस धूप के सिरहाने एक ख़्वाब पाला,
जला भी नहीं और वो पा गया उजाला,
पर लग जाते जब आता अंधेरा,
फुर्र से उड़ जाती तोड के पहरा,
उफ्फ ख़्वाब ही तो था,
बस उसका चाल चलन बदल देंगे,
गर धूप उड़ चली,दिन में देख लेंगे।

©jigna___