...

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सिफ़र
सुन रे बंदे!
सुन ले ज़रा ये आवाज़,
और लगा ले अपना ध्यान।

फरेब के जंगल में कुचले जाते,
हाड़-मांस के पुतले की एक पुकार,
शायद जिसे तुम कहते हो,
एक इंसान।

"ख़ुद की नज़रों में भी
गिरने की जगह ना मिले जिसे,
उसे और कितना गिरा पाओगे?

जिसने दफ़न कर लिया है
अपने जिस्म का हर एक हिस्सा,
उसे और कितना दबा पाओगे?

जो झुक चुका है
अपने जज़्बातों के टूटे टहनियों पर,
बदनाम तूफ़ानों से अब
ऐ दुनिया वालों,
उसे और कितना झुका पाओगे?

जिल्लत के जश्न में
ख़ून-ए-जा़म पिया हो जिसने,
उसे और कितना ज़हर पिला पाओगे?

'सिफ़र' बन जो मिल चुका है
काय़नात के हर ज़र्रे में,
ख़ुदा के उस बंदे को,
उड़ने से और कितना रोक पाओगे?"

© AK