...

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जगत के कोने-कोने में
होता यह घटित कांटेदार झाड़ियों में
होता यह घटित सूखे जंगलों में
यह होता घटित अंधेरी रातों में
यह होता घटित दिन के उजालों में
पर यह होता घटित
जगत के कोने-कोने में।

होता चीर-फाड़ उसकी कपड़ों के
होती हत्या अंदर बसे उस आत्मा के
नोचने भेड़िए शरीर के हर एक कोशिका ओं को
फेंक देते श्मशान में मरने बेबस मौत को
पर होता है घटित
जगत के कोने-कोने में।

फिर होता घटित एक और सवेरा है
आते निंद के राक्षस, कुछ को जगाते , कुछ को सुलाते
होता पुनरावृत्ति उस दरिंदगी भरे कांड के
होता शुरूआत सिलसिलेवार मौत के
कोई खुद जल हुए भस्म तो किसी को बना दिया गया
पर होता है यह घटित
जगत के कोने-कोने में।

फिर उठते कई उंगलीयां
उन भेड़ियों पर नहीं
उस अधमरे, सड़े-गले मांस के लोथड़े पर
जो कुछ थोड़े लटक रहे उन बेजान हड्डियों पर
वहता उन नम आंखों से अश्रु की नदियां
होता विस्फोट ह्रदय में ज्वालामुखी उस दबी,सहमी क्रोध के
पर होता यह घटित
जगत के कोने-कोने में।

प्रस्फुटित होता मन में यह इच्छा
काश मैं फोड़ पाता आंखों की पुतलियां
और फाड़ पाता कानों के अनमोल पर्दे
फिर अचानक से होता आकाशवाणी
वृथा है परेशानी यह तूम्हारी
क्योंकि
घटता है यही
जगत के कोने-कोने में।
© harry56tuyul