...

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मैं मैच्योर होना चाहती हूं..
मैच्योर...
हम अपनी प्रॉब्लम शेयर करना बंद कर देते हैं,
इसलिए नहीं कि अब हमें कहना नहीं है,अपने अन्दर दबाकर रखना है बल्कि इसलिए क्यूंकि वो इन्सान जिससे हम सबसे ज्यादा उम्मीद करते हैं,वो हमारी तकलीफ महसूस ही नहीं करता..और सबको लगता है कि हम मैच्योर हो गए हैं।

एक वक्त आता है कि हम शिकवा- शिकायत करना, गिले करना छोड़ देते हैं, इसलिए नहीं कि हमें उनके रवैए से फर्क पड़ना बंद हो गया है,बस अब उन्हें एहसास नहीं होने देते और उन्हें लगता है कि हम मैच्योर हो गए हैं, हममें ज्यादा अंडरस्टैंडिंग आ गई है।

जिंदगी का ये कौन सी अवस्था है.. जिसमें मैच्योर होना यानी.. अपने स्वभाव के विपरीत हो जाना है,
ये कौन सी अवस्था है जो हमारी वास्तविकता नहीं स्वीकार सकती।
ये कौन सा रिश्ता है जिसमें अपने दिल की बात दबा देना जरूरी होता है,
ये क्या है जो चाहता है कि सामने वाला गधा बन जाए..कितना भी,कैसा भी वजन उस पर लाद दो..वो ढोता रहेगा..जिसको सींग तो ईश्वर ने ही नहीं दिए, और लात भी नहीं मार सकता..इतना सीधा..?कैसे..?
खैर...इन सबसे दूर होकर कभी कभी डर लगता है कि अगर मैं बदल गई तो कहीं किसी की तकलीफ़ का सबब ना बन जाऊं...बस यही सोचकर बदलना नहीं चाहती,वरना बदलाव तो प्रकृति का नियम है.. बदलना हमें भी आता है..!!

आकांक्षा मगन "सरस्वती"

© आकांक्षा मगन "सरस्वती"