...

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परमात्मा के संगम
जैसे निकलता...,चढ़ता....औऱ ढलता दिन,
वैसे होती... और ढलती ...अँधेरी...और पूनम की रात,
इसी मध्यस्थता में होती ... सुुबह औऱ ढलती... शाम।।

बंद आंखों ने जब देखें..., जागते से सपनें,
मौन ने कह दी...,
सारी व्यथा, परमेश्वर को अपने।

ये शरीर जड़.., किन्तु मन चंचल...,
Right brain for creativity..., & left for logical...,
भाव, अभाव,स्वभाव,प्रभाव का संग्रह करता मन, बड़ा प्रबल...,
हाँ, इन सभी की मध्यस्थता में हैं...!
क्या..?
अंतरआत्मा के सटीक हल।

क्यों बैठे हैं भाई, हम होकर यूँ निराश...
पाँव मिले, चलने की खातिर...
डालें खुद पर हम सजीव प्रकाश।।

एकाँत का सानिध्य कर ...हम अनंत में रम गए..,
ख़ुद के संग न्याय किया तो, सारे जग को जान गए...,

"निष्काम कर्म" की करें साधना..,तो
चिंता (डिप्रेशन) भी कोई होती है?
ये फिर कह न पाये,
ऐसी "दुर्लभ कृपा",करी मेरे परमेश्वर ने...
आभार किये बिना, रहा न जाये।।
जय हिंद।।साधौ भाई ।।🌹🇮🇳🌍🐚

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© nikita sain