ग़ज़ल
परचम-ए-इश्क़ से ही जान लिया जाता है
क़ाफ़िला दर्द का पहचान लिया जाता है
बज़्म-ए-जानां में नहीं होता सवालों का चलन
यार जो कहता है वो मान लिया जाता है
बेचनी पड़ती है अपने ही बदन की ख़ुशबू
नर्म फूलों से ये भुगतान लिया जाता है
ओढ़ कर ख़ामुशी से मस्लहतों की चादर
वक़्त के फ़ैसलों को मान लिया जाता है
बेल नहीं अब मैं बजाता हूँ दर-ए-ख़ूबाँ पर
मुझ को आहट से ही पहचान लिया जाता है
बात के वक़्त ज़रा सोच लिया करते हैं
चाय को पहले ज़रा छान लिया जाता है
© Rehan Mirza
#ghazal #rehanmirza #WritcoQuote #writcopoem #Hindi #urdupoetry