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शीर्षक : पीड़ा एक बांझ स्त्री मन की
हाँ , बांझ हूँ मैं।
अपने कोख से
जन नहीं सकती है एक नव सृष्टि ,
नहीं दे सकती मैं एक अतिसूक्ष्म कण को जीवन।
हाँ , पर इसमें दोष नहीं मेरा
फिर भी क्यों सुनने पड़ते हैं ताने मुझे हमेशा
इस समाज से वक्त - बेवक्त ।
कुलच्छनी, बांझ, कलमुँही
ना जाने क्यों ये सारे शब्द आते हैं मेरे हिस्से
बिना कोई गलती किये बिना ही ।

हाँ , मैं बांझ हूँ
पर ममत्व की थोड़ी - सी भी कमी नहीं मुझमें
ममता का अतिगहरा सागर मेरे अंदर
मेरे हृदय की गहराइयों में सदैव बहता रहता है ।
देखकर किसी बच्चे को हिचकोले है खाता ये
उमड़ पड़ता है उसपर ,
अपनी सारी ममता को पूर्ण रुप से लुटा देने के लिए लेती हूँ जब मैं भी
किसी नवजात शिशु को अपने गोद में
मेरा भी बहुत जी करता है।
दिन - रात उसपर अपनी ममता न्योछावर करने को
उसे अपने गोद में ले थपकी दे देकर लोरी गाकर सुलाने को ;
उसके साथ हंसने को, मुस्कुराने को , खिलखिलाने को;
उसके लिए अपने हाथों से उसका भोजन बनाकर
उसे अपने हाथों से बहुत प्यार से खिलाने को ;
उसके लिए छोटे - छोटे कपडे़, खिलौने आदि लाने को ,
काली बुरी नजर से उसे बचाने के लिए
उसके माथे पर काला टीका लगाने को ,
उसे झूले में बैठाकर झूला झूलाने को।

पर समझते नही मेरी भावनाएँ यहाँ नहीं कोई
और अभिशप्त मुझे कहते हैं ।
रखते अपने बच्चें को दूर मुझसे
डायन मुझे हर वक़्त कहते हैं ।

लूं जो मैं किसी बच्चें को गोद अनाथालय से
उसपर भी ये समाज क्यों खुश नहीं रहते हैं
क्यों उसे गोद लिया हुआ बच्चा कहते हैं ??
क्या एक माँ के कोख से जन्म लिया हुआ ही बच्चा
इस दुनिया में उस माँ का अपना बच्चा कहला सकता है ??
सबकी निगाहों में
पालनेवाली माँ सिर्फ माँ क्यों नहीं कहला पाती है
यहाँ यशोदा मैया अपने अंतिम साँस तक
समस्त समाज की निगाहों में
यशोदा मैया ही आखिर क्यों बनकर रह जाती है ??

— Arti Kumari Athghara (Moon) ✍✍

© Alfaj _E_Chand ( 💗🌛Moon💗🌛) ✍✍