...

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मैं...एक स्त्री
आदि हूंँ जीने की विरोधाभासों में,
मगन रहती हूंँ प्रेम के आभासों में।

तृप्ति की चाह नहीं, तृष्णा ही भाती,
गिनती होती मेरी कुछ चीर प्यासों में।

सहनशील कुछ स्वभाव से और कुछ बनाई गई,
मेरी ही कहांँ चलती चाह अपनी श्वासों में।

कहने को गृह लक्ष्मी कहलाती किंतु,
हक़ नहीं मेरा किसी भी आवासों में।

होठों पर रहती है अहर्निश मुस्कान,
भले ही आह दबी रहती निश्वासों में।

© "मनु"