मैं...एक स्त्री
आदि हूंँ जीने की विरोधाभासों में,
मगन रहती हूंँ प्रेम के आभासों में।
तृप्ति की चाह नहीं, तृष्णा ही भाती,
गिनती होती मेरी कुछ चीर प्यासों में।
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मगन रहती हूंँ प्रेम के आभासों में।
तृप्ति की चाह नहीं, तृष्णा ही भाती,
गिनती होती मेरी कुछ चीर प्यासों में।
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