...

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"मैं"
धीमे-धीमे सहज बढ़ो,
पग-पग कोमल पहर धरो,
श्वास-श्वास से जन्मा जीवन,
फिर वही विश्वास हरो।

धरा गई अब छूट तो क्या,
नभ जैसे तुम बन जाओ,
दूर तलक बहते जाओ,
अनंत क्षितिज में मिल जाओ।

नक्षत्र छवि नामुमकिन है,
विधु दीप्त उद्धार करो,
कण-कण जग रौशन करके,
फिर वही हर्षोल्लास भरो।

हार-जीत दो पहलूं है,
सब सृष्टि के खेले हैं,
तुम कौन 'वाणी' जग में,
जो साथ सरल पहेली मैं।
© प्रज्ञा वाणी