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#खोईशहरकीशांति
#खोईशहरकीशांति

ओ शहर अपनी पहचान
अंधेरों में छुपाते क्या हो?
इतना जानकर भी
अनजान भटकते कहाँ हो?

कितनी ही कश्ती बहती है,
गंगा घाट पे मछवारों की!
और जाने कितने ही किस्से
रंगते है लहुँ के तलवारों की।
तुम इतना शांत होकर भी,
इतना सब सहते कैसे हो?

जगमगाते शहर को,
लालटेन की आदत थी।
सुबह के चाय को,
चूल्हे की इबादत थी।
तुम कुछ बदल कर भी,
अब भी ठहरे कहाँ हो?

कहते है तुम मिठाईयों का खज़ाना हो!
मदिरा आज तुम्हारी वक़ादत है।
खड़े होते लोग अपने ही जनाज़े के करीब,
और तुम ख़ामोश दूर से मुस्कुराते हो।

सच है की तुम,
खुशहाली का शहर हो!
और अपने ही रगों में,
हाल-ए-बगावत छुपाते अच्छा हो!
ओ शहर तुम यूँ अपनी पहचान,
अंधेरों में छुपाते क्या हो?

बहती गंगा शांत सी,
तुम्हारे ही गोद में!
पर तुम यूँ
अपनी शांती खोए,
अंजान से हमसे दूर,
बैठे क्यों हो?


© KALAMKIDIWANI